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Thursday, 9 April 2020

कोरोना: 1918 में आए फ़्लू से सबक ले सकता है भारत

उस वक्त महात्मा गांधी की उम्र 48 साल थी. फ़्लू के दौरान उन्हें पूरी तरह से आराम करने को कहा गया था. वो सिर्फ तरल पदार्थों का सेवन कर रहे थे. वो पहली बार इतने लंबे दिनों के लिए बीमार हुए थे.
जब उनकी बीमारी की ख़बर फैली तो एक स्थानीय अखबार ने लिखा था, "गांधीजी की ज़िंदगी सिर्फ उनकी नहीं है बल्कि देश की है."
यह फ्लू बॉम्बे (अब मुंबई) में एक लौटे हुए सैनिकों के जहाज से 1918 में पूरे देश में फैला था. हेल्थ इंस्पेक्टर जेएस टर्नर के मुताबिक इस फ्लू का वायरस दबे पांव किसी चोर की तरह दाखिल हुआ था और तेजी से फैल गया था.
उसी साल सितंबर में यह महामारी दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्रों में फैलनी शुरू हुई.
इंफ्लुएंजा की वजह से करीब पौने दो करोड़ भारतीयों की मौत हुई है जो विश्व युद्ध में मारे गए लोगों की तुलना में ज्यादा है. उस वक्त भारत ने अपनी आबादी का छह फीसदी हिस्सा इस बीमारी में खो दिया. मरने वालों में ज्यादातर महिलाएँ थीं. ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि महिलाएँ बड़े पैमाने पर कुपोषण का शिकार थी. वो अपेक्षाकृत अधिक अस्वास्थ्यकर माहौल में रहने को मजबूर थी. इसके अलावा नर्सिंग के काम में भी वो सक्रिय थी.
ऐसा माना जाता है कि इस महामारी से दुनिया की एक तिहाई आबादी प्रभावित हुई थी और करीब पांच से दस करोड़ लोगों की मौत हो गई थी.
गांधी और उनके सहयोगी किस्मत के धनी थे कि वो सब बच गए. हिंदी के मशूहर लेखक और कवि सुर्यकांत त्रिपाठी निराला की बीवी और घर के कई दूसरे सदस्य इस बीमारी की भेंट चढ़ गए थे.
वो लिखते हैं, "मेरा परिवार पलक झपकते ही मेरे आंखों से ओझल हो गया था." वो उस समय के हालात के बारे में वर्णन करते हुए कहते हैं कि गंगा नदी शवों से पट गई थी. चारों तरफ इतने सारे शव थे कि उन्हें जलाने के लिए लकड़ी कम पड़ रही थी. ये हालात और खराब हो गए जब खराब मानसून की वजह से सुखा पड़ गया और आकाल जैसी स्थिति बन गई. इसकी वजह से लोग और कमजोर होने लगे. उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई. शहरों में भीड़ बढ़ने लगी. इससे बीमार पड़ने वालों की संख्या और बढ़ गई.


बॉम्बे, 1918इमेज कॉपीरइटPRINT COLLECTOR
Image captionबॉम्बे शहर इस बीमारी से बुरी तरह प्रभावित हुआ था.

उस वक्त मौजूद चिकित्सकीय व्यवस्थाएं आज की तुलना में और भी कमतर थीं. हालांकि इलाज तो आज भी कोरोना का नहीं है लेकिन वैज्ञानिक कम से कम कोरोना वायरस की जीन मैपिंग करने में कामयाब जरूर हो पाए हैं. इस आधार पर वैज्ञानिकों ने टीका बनाने का वादा भी किया है. 1918 में जब फ्लू फैला था तब एंटीबायोटिक का चलन इतने बड़े पैमाने पर नहीं शुरू हुआ था. इतने सारे मेडिकल उपकरण भी मौजूद नहीं थे जो गंभीर रूप से बीमार लोगों का इलाज कर सके. पश्चिमी दवाओं के प्रति भी देश में एक स्वीकार का भाव नहीं था और ज्यादातर लोग देसी इलाज पर ही यकीन करते थे.
लेकिन इन दोनों ही महामारियों के फैलने के बीच भले ही एक सदी का फासला हो लेकिन इन दोनों के बीच कई समानताएं दिखती हैं. संभव है कि हम बहुत सारी जरूरी चीजें उस फ्लू के अनुभव से सीख सकते हैं.